अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएं (Central Problems of an Economy)

मानव की आवश्यकताएँ अनंत हैं, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए उपलब्ध संसाधन (भूमि, श्रम, पूँजी, उद्यमी) सीमित और वैकल्पिक उपयोग वाले हैं। इसी बुनियादी विरोधाभास के कारण हर अर्थव्यवस्था को – चाहे वह अमेरिका जैसी पूँजीवादी हो, चीन जैसी समाजवादी हो या भारत जैसी मिश्रित अर्थव्यवस्था हो – तीन मूलभूत प्रश्नों का उत्तर हर पल देना पड़ता है। इन्हीं तीन प्रश्नों को हम “अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याएँ” कहते हैं। ये समस्याएं किसी एक देश की नहीं हैं, बल्कि यह सार्वभौमिक (Universal) हैं। चाहे वह विकसित देश (जैसे अमेरिका) हो या विकासशील देश (जैसे भारत), पूंजीवादी अर्थव्यवस्था हो या समाजवादी, सभी को इन समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

केंद्रीय समस्याओं के मूल कारण (Root Causes of Central Problems)

इन समस्याओं को गहराई से समझने से पहले, यह जानना जरूरी है कि ये समस्याएं उत्पन्न क्यों होती हैं। इसके तीन मुख्य कारण हैं:

  • असीमित आवश्यकताएं (Unlimited Human Wants): मनुष्य की इच्छाएं अनंत हैं। भोजन, कपड़ा, और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों के बाद, मनुष्य आरामदायक जीवन (AC, कार) और फिर विलासितापूर्ण जीवन (लक्जरी विला, निजी जेट) की कामना करता है। यह चक्र कभी समाप्त नहीं होता।
  • सीमित संसाधन (Limited Resources): आवश्यकताओं की तुलना में उन्हें पूरा करने वाले साधन (भूमि, कच्चा माल, मशीनें, पैसा, मजदूर) हमेशा कम होते हैं। इसे अर्थशास्त्र में ‘दुर्लभता’ (Scarcity) कहा जाता है। दुर्लभता ही सभी आर्थिक समस्याओं की जननी है।
  • संसाधनों के वैकल्पिक प्रयोग (Alternative Uses of Resources): समस्या केवल यह नहीं है कि संसाधन कम हैं, बल्कि समस्या यह भी है कि एक ही संसाधन का उपयोग कई कार्यों में किया जा सकता है।
    • उदाहरण: दूध एक सीमित संसाधन है। इसका उपयोग पनीर बनाने, मिठाई बनाने, दही जमाने या बच्चों को पिलाने के लिए किया जा सकता है। अर्थव्यवस्था को चुनना पड़ता है कि दूध का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग क्या है।

अर्थव्यवस्था की तीन प्रमुख केंद्रीय समस्याएं

प्रोफेसर सैमुएलसन (Samuelson) और अन्य अर्थशास्त्रियों ने अर्थव्यवस्था की तीन मौलिक समस्याओं को चिन्हित किया है, ये तीनों समस्याएँ हैं:

  1. क्या उत्पन्न किया जाए? (What to Produce?)
  2. कैसे उत्पन्न किया जाए? (How to Produce?)
  3. किसके लिए उत्पन्न किया जाए? (For Whom to Produce?)

आइए अब इन तीनों को बहुत विस्तार से, उदाहरणों सहित, भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझते हैं।

क्या उत्पादन किया जाए और कितनी मात्रा में? (What to produce and in what quantity?)

यह सबसे पहली और बुनियादी समस्या है। चूंकि संसाधन सीमित हैं, हम सब कुछ पैदा नहीं कर सकते। समाज को यह तय करना होता है कि किन वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन सबसे जरूरी है। यह समस्या ‘चयन’ (Problem of Choice) से संबंधित है। सीमित संसाधनों से अनगिनत वस्तुएँ और सेवाएँ बनाई जा सकती हैं, लेकिन सब कुछ एक साथ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए समाज को तय करना पड़ता है कि प्राथमिकता क्या होगी।

इस समस्या के दो मुख्य पहलू हैं:

अ) वस्तुओं के प्रकार का चयन:
अर्थव्यवस्था को यह निर्णय लेना होता है कि वह किस प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करे। इसे हम कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं:

  • उपभोक्ता वस्तुएं बनाम पूंजीगत वस्तुएं (Consumer Goods vs Capital Goods): क्या संसाधनों का उपयोग भोजन, कपड़े और अनाज (उपभोक्ता वस्तुएं) बनाने में किया जाए, जो वर्तमान जरूरतों को पूरा करते हैं? या फिर मशीनें, बांध और उपकरण (पूंजीगत वस्तुएं) बनाने में किया जाए, जो भविष्य में उत्पादन क्षमता बढ़ाएंगे?
  • नागरिक वस्तुएं बनाम युद्धकालीन वस्तुएं (Civil Goods vs War Goods): क्या देश को मक्खन और ब्रेड (नागरिक वस्तुएं) का उत्पादन करना चाहिए या बंदूकें और टैंक (रक्षा वस्तुएं) बनाने चाहिए? इसे अर्थशास्त्र में अक्सर ‘Guns vs Butter’ की समस्या कहा जाता है।
  • आवश्यक वस्तुएं बनाम विलासिता वस्तुएं (Necessities vs Luxuries): क्या गरीबों के लिए सस्ता अनाज और कपड़ा बनाया जाए या अमीरों के लिए महंगी कारें और शराब?

ब) मात्रा का निर्धारण (Quantity):
एक बार जब यह तय हो जाता है कि क्या बनाना है, तो अगला सवाल यह है कि कितना बनाना है। यदि हम उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन बहुत बढ़ा देते हैं, तो भविष्य के विकास के लिए पूंजीगत वस्तुओं (मशीनों) की कमी हो जाएगी। इसलिए, एक संतुलन बनाना आवश्यक है।

विकल्प कुछ इस प्रकार हैं:

  • क्या हम 50 लाख लग्जरी कारें (Mercedes, BMW) बनाएँ या 5 करोड़ सस्ती मोटरसाइकिलें और स्कूटर?
  • क्या हम 10 लाख आईफोन बनाएँ या 50 करोड़ स्मार्टफोन जो ₹8000–12000 में बिक सकें?
  • क्या हम 5-सितारा होटल और मॉल बनाएँ या 2 करोड़ गरीबों के लिए पक्के मकान (PM आवास योजना)?
  • क्या हम हथियार, मिसाइल, लड़ाकू विमान बनाएँ या स्कूल, अस्पताल और सड़कें?
  • क्या हम सिगरेट, शराब, गुटखा बनाएँ या दवाइयाँ, दूध पाउडर और बच्चों का पोषण आहार?

हर विकल्प के अपने सामाजिक, नैतिक और आर्थिक परिणाम हैं। अगर हम लग्जरी सामान बनाते हैं तो अमीर लोग खुश होंगे, लेकिन गरीबों की बुनियादी जरूरतें अधर में लटक जाएंगी। अगर हम सिर्फ आवश्यक वस्तुएँ बनाते हैं तो गरीब तो खुश होंगे, लेकिन अमीर लोग विदेशी सामान आयात करेंगे और विदेशी मुद्रा बाहर जाएगी।

भारत जैसे विकासशील देश में यह समस्या और भी जटिल हो जाती है क्योंकि:

  • 40–45% आबादी अभी भी गरीबी रेखा के आस-पास है।
  • बेरोजगारी दर ऊँची है।
  • कुपोषण की दर दुनिया में सबसे ऊँची देशों में से एक है।
  • साथ ही एक बड़ा मध्यम वर्ग है जो लग्जरी और ब्रांडेड सामान भी चाहता है।

इसलिए भारत में यह सवाल बार-बार उठता है:
क्या हम Make in India के तहत iPhone बनाएँ या Make in India के तहत ₹1500 का जियो फोन?
क्या हम बुलेट ट्रेन बनाएँ या ग्रामीण क्षेत्रों में साधारण रेलवे लाइनों का दोहरीकरण करें?
क्या हम मंगलयान और चंद्रयान भेजें या पहले हर गाँव तक बिजली और पानी पहुँचाएँ?

संक्षेप में, “क्या उत्पन्न किया जाए” का फैसला समाज की प्राथमिकताओं, नैतिकता, राजनीतिक विचारधारा और विकास के चरण पर निर्भर करता है।

कैसे उत्पादन किया जाए? (How to produce?)

यह समस्या उत्पादन की तकनीक (Technology) के चुनाव से संबंधित है। जब हम यह तय कर लेते हैं कि क्या बनाना है, तो हमें यह तय करना होता है कि उस वस्तु को बनाने के लिए किस विधि का प्रयोग किया जाए। मुख्य उद्देश्य कम से कम लागत में अधिक से अधिक उत्पादन करना होता है (Efficiency)।

मुख्य रूप से दो तकनीकें होती हैं:

अ) श्रम-प्रधान तकनीक (Labor Intensive Technique):

  • इस विधि में मशीनों की तुलना में मजदूरों (Labor) का अधिक उपयोग किया जाता है।
  • लाभ: इससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं। जिन देशों में जनसंख्या अधिक है और पूंजी कम है (जैसे भारत, बांग्लादेश), वहां यह तकनीक उपयुक्त मानी जाती है।
  • हानि: उत्पादन की गति धीमी हो सकती है और लागत कभी-कभी अधिक हो सकती है।

ब) पूंजी-प्रधान तकनीक (Capital Intensive Technique):

  • इस विधि में मजदूरों की तुलना में मशीनों (Machines/Capital) का अधिक उपयोग होता है।
  • लाभ: इससे उत्पादन बहुत तेजी से और बड़ी मात्रा में होता है। गुणवत्ता (Quality) भी बेहतर होती है। विकसित देशों (जैसे अमेरिका, जापान) में इसका प्रयोग अधिक होता है।
  • हानि: इससे बेरोजगारी बढ़ने का खतरा रहता है, क्योंकि मशीनें मजदूरों की जगह ले लेती हैं।

चुनौती: अर्थव्यवस्था को यह निर्णय लेना होता है कि वह ‘रोजगार’ को प्राथमिकता दे या ‘कुशलता’ (Efficiency) को।

उदाहरण के लिए मान लीजिए हमें कपड़ा बनाना है। कपड़ा बनाने के दो तरीके हैं:

  • हाथ से चलने वाले चरखे और हथकरघे से
    • इसमें बहुत ज्यादा मजदूर लगेंगे, पूँजी कम लगेगी।
    • फायदा: बहुत ज्यादा रोजगार सृजन
    • नुकसान: उत्पादन कम, लागत ज्यादा, गुणवत्ता में एकरूपता नहीं
  • पूरी तरह ऑटोमैटिक टेक्सटाइल मिल (जैसे Raymond या Arvind Mills)
    • बहुत कम मजदूर, बहुत ज्यादा मशीनें
    • फायदा: बहुत ज्यादा उत्पादन, कम लागत, एकसमान गुणवत्ता
    • नुकसान: बहुत कम रोजगार, बेरोजगारी बढ़ेगी

भारत जैसे देश में जहाँ 140 करोड़ की आबादी में से हर साल 1.2–1.5 करोड़ युवा नौकरी की तलाश में आते हैं, वहाँ श्रम-प्रधान तकनीक को प्राथमिकता दी जाती है। यही कारण है कि:

  • निर्माण क्षेत्र में अभी भी मजदूरों से काम कराया जाता है, JCB की संख्या कम है।
  • खेती में ट्रैक्टर तो आ गए हैं, लेकिन कटाई-बुआई अभी भी मजदूर करते हैं।
  • खादी और हस्तशिल्प को सरकार सब्सिडी देती है।
  • MSME सेक्टर को बढ़ावा दिया जाता है क्योंकि वे ज्यादा रोजगार देते हैं।

वहीं अमेरिका, जापान, जर्मनी जैसे विकसित देश पूँजी-प्रधान तकनीक अपनाते हैं क्योंकि वहाँ मजदूरी बहुत महँगी है और कुशल श्रमिकों की कमी है। भारत में यह दुविधा हर क्षेत्र में दिखती है:

  • क्या मेट्रो बनाते समय टनल बोरिंग मशीन (बड़ी मशीन) इस्तेमाल करें या मजदूरों से खुदाई कराएँ?
  • क्या ईंट भट्ठों में मशीन से ईंट बनाएँ या मजदूरों से हाथ से?
  • क्या दूध डेयरी में पूरी तरह ऑटोमैटिक प्लांट लगाएँ या गाँव की महिलाओं से हाथ से दूध इकट्ठा करें?

इसलिए “कैसे उत्पन्न करें” का फैसला देश की जनसँख्या, बेरोजगारी की स्थिति, मजदूरी दर और पूँजी की उपलब्धता पर निर्भर करता है।

किसके लिए उत्पादन किया जाए? (For whom to produce?)

तीसरी समस्या वितरण (Distribution) से जुड़ी है। जब उत्पादन हो जाता है, तो उसका उपभोग कौन करेगा? चूंकि संसाधन सीमित हैं, इसलिए समाज के सभी सदस्यों को समान मात्रा में वस्तुएं नहीं मिल सकतीं। यह समस्या यह तय करती है कि “राष्ट्रीय उत्पाद” (National Product) का बंटवारा लोगों के बीच कैसे होगा।

इसके दो पहलू हैं:

अ) व्यक्तिगत वितरण (Personal Distribution):
यह आय की असमानता से संबंधित है। क्या उत्पादन अमीरों के लिए किया जाए जिनके पास क्रय शक्ति (Purchasing Power) अधिक है? यदि बाजार में केवल मर्सिडीज कारें और महंगे फोन बनेंगे, तो गरीब लोग उनका उपभोग नहीं कर पाएंगे। यह समस्या पूछती है: “उत्पादन में गरीबों का हिस्सा कितना हो और अमीरों का कितना?”

ब) कार्यात्मक वितरण (Functional Distribution):
इसका अर्थ है कि उत्पादन के चार कारकों (Land, Labor, Capital, Enterprise) के बीच आय का बंटवारा कैसे हो?

  • भूमि मालिक को लगान (Rent)।
  • मजदूर को वेतन (Wages)।
  • पूंजीपति को ब्याज (Interest)।
  • उद्यमी को लाभ (Profit)।

नैतिक द्वंद्व (Ethical Dilemma):
अगर हम केवल उनके लिए उत्पादन करते हैं जो भुगतान कर सकते हैं (अमीर), तो समाज का गरीब वर्ग वंचित रह जाएगा। और अगर हम सब कुछ गरीबों में मुफ्त बांट दें, तो उत्पादकों को लाभ नहीं होगा और वे उत्पादन बंद कर देंगे। इसलिए, अर्थव्यवस्था को सामाजिक न्याय (Social Justice) और आर्थिक लाभ (Economic Profit) के बीच संतुलन बनाना पड़ता है।

तीन मुख्य तरीके हैं जिनसे यह तय होता है कि सामान किसे मिलेगा:

  1. बाजार तंत्र (Price Mechanism) – पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ
    जो ज्यादा कीमत दे सकता है, उसे सामान मिलेगा।
    उदाहरण: iPhone 15 Pro Max ₹1.6 लाख का है, जो दे सकता है वही लेगा। गरीब को नहीं मिलेगा।
  2. नियोजित तंत्र (Central Planning) – समाजवादी अर्थव्यवस्थाएँ
    सरकार तय करती है कि किसे कितना मिलेगा।
    पुराने सोवियत संघ में सबको एकसमान राशन मिलता था, चाहे वह इंजीनियर हो या मजदूर।
  3. मिश्रित तंत्र (Mixed System) – भारत जैसे देश
    ज्यादातर सामान बाजार तय करता है, लेकिन जरूरी वस्तुएँ (गेहूँ, चावल, केरोसिन, दवाइयाँ) सब्सिडी या PDS के जरिए गरीबों को दी जाती हैं।

भारत में यह समस्या बहुत गहरी है क्योंकि:

  • ऊँची आय असमानता है (टॉप 1% के पास 40% से ज्यादा संपत्ति)
  • 5–6 करोड़ लोग अभी भी भूखे सोते हैं
  • वहीं 10–12 करोड़ लोग विदेश यात्रा करते हैं और लग्जरी कारें खरीदते हैं

इसलिए भारत में एक साथ दो तरह की अर्थव्यवस्था चल रही है:

  • एक अर्थव्यवस्था जो Rolls Royce, Prada, Louis Vuitton बेचती है
  • दूसरी अर्थव्यवस्था जो ₹10 में चाय और ₹20 में वड़ा-पाव बेचती है

सरकार इस समस्या को हल करने के लिए कई योजनाएँ चलाती है:

  • PDS (सार्वजनिक वितरण प्रणाली)
  • आयुष्मान भारत (5 लाख तक मुफ्त इलाज)
  • PM किसान सम्मान निधि
  • मनरेगा
  • मिड-डे मील

फिर भी यह सवाल बरकरार है कि क्या हमारा उत्पादन गरीबों की जरूरत के अनुसार है या अमीरों की माँग के अनुसार?

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